पेज

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लॉग से कोई भी पोस्ट कहीं न लगाई जाये और न ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

सोमवार, 24 जुलाई 2017

'वो सफ़र था कि मुकाम था' - मेरी नज़र से


Maitreyi Pushpa जी की लिखी संस्मरणात्मक पुस्तक पर मेरे द्वारा लिखी समीक्षा "शिवना साहित्यिकी" के जुलाई-सितम्बर 2017 अंक में प्रकाशित हुई है ......जो चित्र में न पढ़ पायें उनके लिए यहाँ भी लगा रही हूँ....शिवना प्रकाशन की हार्दिक शुक्रगुजार हूँ जो उन्होंने मेरी प्रतिक्रिया को प्रकाशित किया :

‘वो सफ़र था कि मुकाम था’ मैत्रेयी पुष्पा जी द्वारा लिखी एक संस्मरणात्मक पुस्तक तो है ही शायद राजेंद्र यादव जी को दी गयी एक श्रद्धांजलि भी है और शायद खुद से भी एक संवाद है , प्रतिवाद है . 

मुझे नहीं पता कैसे सम्बन्ध थे मैत्रेयी जी और राजेन्द्र जी के और न जानने की उत्सुकता क्योंकि एक स्त्री होने के नाते जानती हूँ यहाँ तथ्यों को कैसे तोडा मरोड़ा जाता है . मुझे तो पढने की उत्सुकता थी कैसे किसी के जाने के बाद जो शून्य उभरता है उसे लेखन भरता है. इस किताब में शायद उसी शून्य को भरने की लेखिका द्वारा कोशिश की गयी है मगर शून्य की जगह कोई नहीं ले सकता. शून्य का कोई विलोम भी नहीं. यानि लेखिका की ज़िन्दगी में जो शून्य पसरा है अब उम्र भर नहीं भर सकता. जिस गुरु, पथप्रदर्शक, विचारक , दोस्त के साथ ज़िन्दगी के २०-२२ साल गुजरे हों तमाम सहमतियों और असहमतियों के बाद भी, क्या उसे किसी भी वस्तु, मनुष्य या अनर्गल संवाद से विस्थापित किया जा सकता है . ये रिश्ता क्या कहलाता है , ये जानने की उत्सुकता तो सभी को रही लेकिन ये रिश्ता कैसे निभाया जाता है शायद ही कोई समझ पाया हो. जहाँ भी स्त्री और पुरुष हों वहां उनके कैसे स्वच्छ सम्बन्ध हो सकते हैं ? ये हमारी मानसिकता में घोंट घोंट का ठूंसा गया है तो उससे अधिक हम सोच भी नहीं सकते जबकि रिश्ता कोई हो वो भरोसे की नींव पर ही टिक सकता है और शायद दोनों ने ही उस भरोसे को कायम रखने की कोशिश की तभी इतना लम्बा सफ़र तय कर पाया . हो सकता है राजेंद्र जी की छवि के कारण मैत्रेयी जी को भी वैसा ही माना गया हो क्योंकि कहते हैं ताड़ी के पेड़ के नीचे बैठकर गंगाजल भी पियो तो भी आपको शराबी ही समझा जाएगा और शायद उसी का शिकार ये सम्बन्ध भी रहा. 

मैं ये मानती हूँ जो भी लेखक लिख रहा है वो सच लिख रहा है खासतौर से यदि वो संस्मरण हों या आत्मकथा जबकि कहते हैं आत्मकथा में भी थोड़ी लिबर्टी ले ली जाती है लेकिन जब श्रद्धांजलि स्वरुप कुछ लिखा जाए तो वहां कैसे किसी अतिश्योक्ति के लिए जगह होगी . वैसे भी मैंने न तो आज तक राजेन्द्र जी को पढ़ा न मैत्रेयी जी को इसलिए निष्पक्ष होकर पढने का अलग ही मज़ा है बिना कुछ जाने. किताब पढो तो लगता है सफ़र में हम साथ ही तो चल रहे हैं उन दोनों के फिर उसे मुकाम कैसे कहें. लेखिका ने अपनी भावनाओं के सागर में डुबकी लगा कैसे चुनिन्दा लम्हों को कैद किया होगा , ये आसान नहीं. खासतौर से तब जब जिसे श्रद्धांजलि आप दे रहे हैं उसके अच्छे और बुरे दोनों पक्षों से आप वाकिफ हो चुके हों. फिर भी उन्होंने अपने साहस का परिचय दिया . राजेंद्र जी सकारात्मक में नकारात्मक छवि और नकारात्मक में सकारात्मक छवि का अद्वितीय उदाहरण थे. लेखिका को उनके जीवन की कुंठा भी पता थी तो उनकी महत्वाकांक्षा भी . तभी संभव हो पाया उनके दोनों पक्षों से न्याय करना . राजेन्द्र जी कैसे व्यक्तित्व थे मुझे नहीं पता क्योंकि न कभी मिली न उन्हें जानती थी न कभी देखा. जितना जाना , पढ़ा उनके बारे में तो नेट पर किसी पोस्ट में या फिर अब इस किताब में तो मेरे अन्दर की स्त्री की छटी इंद्री यही कहती है कहीं न कहीं अपने पिता द्वारा तिरस्कृत व्यक्तित्व थे वो जो उपेक्षा का जब शिकार हुए तो उन्होंने उसे भी अपनी सबसे बड़ी ताकत बनाने का फैसला कर लिया. यानि अपनी कमियों को अपनी ताकत बनाया और पिता का कहा एक वाक्य – ‘कौन इससे अपनी बेटी ब्याहेगा’ ने मानो उन्हें जीने की वजह दे दी. खुद से और ज़माने से लड़ने का विचार भी और इसके लिए उन्होंने मानो यही सोचा हो अब खुद को इतना बड़ा बनाओ कि ये कहावत सही सिद्ध हो जाए – खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है . इसे ज़िन्दगी का मूलमंत्र बना मानो उन्होंने पूरी तयारी के साथ साहित्य जगत में कदम रखा तो एक क्या जाने कितने ही नाम उनसे जुड़ते चले गए . मतलब अपनी अपनी गरज से जुड़ने वाले रिश्ते कितने खोखले होते हैं ये सभी जानते हैं और ऐसा ही यहाँ होता रहा और उनकी छवि मानो एक प्ले बॉय जैसी बन गयी . मानो एक धधकती आग को वहीँ विराम मिला कि देखो आज लाइन लगी है मेरे पास , मानो अपने पिता को वो एक जवाब देना चाहते हों कि यहाँ इंसान की कमी मायने नहीं रखती बस जरूरत है खुद को ऐसा बना लो कि दुनिया चरणों में झुकने लगे. इसका ये मतलब नहीं उन्होंने किसी का जबरदस्ती फायदा उठाया जैसा कि लेखिका ने कहा . जो जिस उद्देश्य से आया उसे वो सब मिला वहीँ राजेन्द्र जी के अन्दर एक सच्चे प्यार की प्यास का भी लेखिका ने दिग्दर्शन तो कराया वहीँ एक सच से भी जैसे पर्दा उठाया मानो इस बहाने कहना चाहती हों लेखिका कि उनके अन्दर बेशक चाहत तो थी लेकिन सबसे ऊपर था उनका स्वभाव जिसे वो किसी के लिए नहीं बदल सकते थे . मन्नू जी से शादी भी जैसे एक समझौता था दोनों के मध्य जैसा कि लेखिका ने कहा . कोई नहीं जानता किसने किस उद्देश्य से सम्बन्ध जोड़ा और फिर अलग हुए क्योंकि दोनों की अपनी अपनी अपेक्षाएं थीं एक दूसरे से जिस पर दोनों ही शायद खरे न उतरें हों. इस सन्दर्भ में भी लेखिका ने अपना पक्ष साथ साथ रखा जिससे यदि सिद्ध हुआ वो उनके मध्य नहीं थीं या वो कारण नहीं थीं उनके अलगाव का क्योंकि जो सम्बन्ध जरूरतों से बनते हैं वो एक मोड़ पर आकर अलग रास्ता अख्तियार ही कर लेते हैं फिर वो राजेन्द्र जी ही क्यों न हों जिन्होंने मानो खुद को और अपने पिता और ज़माने को दिखाना चाहा हो कि अपाहिज होने से ज़िन्दगी नहीं रुका करती. हम इस सम्बन्ध पर कुछ नहीं कह सकते कौन कितना सही था और कितना गलत क्योंकि पति पत्नी का रिश्ता तो होता ही विश्वास का है और यदि वो टूटा तो वहां सिवाय किरचों के कुछ नहीं बचता जो उम्र भर सिर्फ चुभने के लिए होती हैं . लोग कह सकते हैं औरत उनकी कमजोरी थी या ये भी कहा जा सकता था वो आगे बढ़ने की सीढ़ी थे लेकिन जो भी था वो सच हर कोई अपने अन्दर जानता है उसकी क्या पड़ताल की जाए . 

यहाँ एक बात और उभर कर आई खासतौर से तब जब लेखिका स्त्री विमर्श के लिए खड़ी होती हैं और औरतों के लिए छिनाल शब्द का प्रयोग किया जाता है तब लेखिका की आँखों से जाने कितने परदे हटते हैं . जिस विश्वास के सहारे उनका रिश्ता आगे बढ़ता रहा वो एकदम दरक गया मानो लेखिका कहना चाहती हो जरूरी नहीं आप किसी के साथ अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजार लें फिर भी उसे पहचान लेने का दावा कर सकें . एक चेहरे में छिपे हैं कई कई आदमी जब भी देखना जरा गौर से देखना . लेखिका के साथ यही हुआ मानो कांच छन् से टूट गया. वो इंसान जिसने उन्हें कदम कदम पर स्त्रियों के हक़ के लिए लड़ना सिखाया हो, बोलना सिखाया हो, लिखना सिखाया हो यदि अचानक वो ही उन्हें ऐसे विमर्श से हटने को कहने लगे तो कैसा लग सकता है ये शायद लेखिका से बेहतर कोई नहीं जान सकता. शायद वो अब भी उतना नहीं कह पायीं जितना अन्दर रख लिया. किस अंदरूनी कशमकश से गुजरी होंगी वो उस दौर में इसका तो अंदाज़ा लगाना भी आसान नहीं . जिसे अपना गुरु, पथ प्रदर्शक माना हो , अपना सबसे अच्छा दोस्त माना हो जिससे आप अपने घर परिवार की , पति पत्नी के संबंधों की वो बातें भी कह सुन सकते हों जो शायद अपने पति से भी कोई पत्नी कभी न कह पाती हो, यदि वो ही आपको दबाने लगे, चुप रहने को कहने लगे और आपको बीच समंदर में अकेला छोड़ दे तो कैसा लगता होगा ये वो ही जानता है जिस पर गुजरी हो लेकिन इस किस्से से जो एक बात सामने आई वो ये कि राजेन्द्र जी चाहे जितना ऊँचा नाम रहे हों लेकिन उनके अन्दर के मर्द के अहम् को चोट लगती है , वो भी बाकी मर्दों से इतर नहीं क्योंकि कौन कह सकता है या कौन जान सकता है जो मर्दों की पार्टियाँ होती हैं या कहिये साहित्यकारों की पार्टियाँ होती हैं उसमे किस हद तक बातें होती हैं और फिर राजेंद्र जी जैसी शख्सियत हो सकता है बढ़ा चढ़ा कर कह देते हों अपने संबंधों के बारे में लोगों से सिर्फ अपना दबदबा दिखाने को , सबकी नज़र में चढ़ने को क्योंकि जो इंसान अपने पिता के शब्द बर्दाश्त न कर पाया हो वो किसी भी हद तक जा सकता है . कौन जानता है उन पार्टीज में महिलाओं और उनके लेखन के लिए कैसी बातें होती हों और शायद जो भी अच्छा या बुरा मैत्रेयी जी के बारे में कहा गया वो उन्ही का उड़ाया हो क्योंकि बिना आग के धुंआ नहीं होता जैसे वैसे ही बेपर की बातें ऐसे ही उडाई जाती हैं फिर ये साहित्य की दुनिया है यहाँ तो आज भी ऐसा हो रहा है फिर वो तो राजेंद्र यादव थे उनके बारे में तो विरोधियों को भी मसाला चाहिए होता होगा ऐसे में यदि वो कोई बात अपनी शेखी बघारने को हलके में भी कहते हों तो संभव है उसे नमक मिर्च लगाकर आगे फैलाया जाता रहा हो . होने को कुछ भी हो सकता है. लेकिन हम बात करते हैं लेखिका और राजेंद्र जी के सम्बन्ध की तो जब इस किताब को मैं पढ़ रही थी तो मुझे अपनी लिखी ही एक कहानी याद आ रही थी - ‘अमर प्रेम’ जहाँ पति , पत्नी और वो का त्रिकोण है जिसमे तीसरे कोण को स्वीकारा गया है पति द्वारा, जो कम से कम हमारे आज के समाज में फिलहाल तो संभव नहीं मगर मैत्रेयी जी और उनके परिवार के सम्बन्ध देखकर यही लगता है जैसे इन तीनों ने इस रिश्ते को जीकर मेरी कहानी को ही सार्थकता प्रदान की हो. यहाँ गुरु शिष्या का रिश्ता था , दोस्ती का रिश्ता था तो एक आत्मिक सम्बन्ध था जो दोस्ती या गुरु शिष्य के सम्बन्ध से भी ऊपर था जिसमे पूरी पवित्रता थी . जरूरी नहीं शारीरिक सम्बन्ध बनें ही यदि वो स्त्री और पुरुष हैं तो बिना सम्बन्ध बनाए भी किसी रिश्ते को कैसे जीया जाता है, कैसे निभाया जाता है ये शायद इन्ही के रिश्ते में देखने को मिलता है , अब कयास लगाने वाले चाहे जो कयास लगायें या कहें अपनी आत्मा के आईने में लकीर नहीं होनी चाहिए और यही तो लेखिका ने लिखकर साबित किया मानो उन सब बड़बोलों को चुप कराने को ही लेखिका ने अब अपने सम्बन्ध की पवित्रता उजागर की हो और कयासों को विराम दिया हो. किसी भी सम्बन्ध की सार्थकता उसकी गहराई में होती है और यहाँ अनेक असहमतियाँ होने के वाबजूद भी किसी ने किसी को नहीं छोड़ा. अंत तक निबाहा और शायद यही इस रिश्ते की सबसे बड़ी खूबसूरती है . 

आज साहित्यिक समाज जो चाहे सोचे जो चाहे कहे मगर लेखिका ने अपने सम्बन्ध की परत-दर-परत उधेड़ दी वर्ना चाहती तो राजेन्द्र जी की नकारात्मक छवि को छुपा भी सकती थीं लेकिन उन्होंने कहीं कुछ नहीं छुपाया बिना लाग लपेट के ज्यों का त्यों धर दिया , बस यही उनकी सच्चाई का प्रमाण है . लेखिका कितना द्वन्द में घिरी , कितनी छटपटाहट से गुजरी और फिर अपने अंतर्विरोधों से खुद को वापस मोड़ा ये पंक्ति दर पंक्ति सामने दीखता है फिर लेखन से न्याय करना आसान नहीं. अपनी बेचैनी और पीड़ा से एक युद्ध लगातार चलता रहा लेखिका का और उस सबके साथ हर रिश्ते के साथ न्याय करते चलना, अपने लेखन को भी जगह देते चलना आसान नहीं मगर लेखिका जैसे तलवार की धार पर चलीं सिर्फ अपने लेखन के जूनून के बलबूते . निजी और साहित्यिक जीवन के मध्य समन्वय स्थापित करना आसान नहीं होता ये वो दलदल है जिसमे एक बार धंसे तो कीच लगे बिना बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि यहाँ ऊपर चढाने वाला यदि एक हाथ होगा तो खींचने वाले हजार . यहाँ तो बिन किसी प्रतिस्पर्धा के स्पर्धा होती है , उसकी लेखनी मेरी लेखनी से बेहतर कैसे की तर्ज पर सरकारें बनायी और मिटाई जाती हैं ऐसे में लेखिका ने संतुलन स्थापित करते हुए अपना सफ़र तय किया जिसमे राजेन्द्र जी जैसे पथ प्रदर्शक, गुरु, दोस्त ने उनका साथ दिया.

जब कोई सिर्फ एक पाठक के नाते इस किताब को निष्पक्ष होकर पढ़ेगा तभी उसकी सच्चाई या प्रमाणिकता को स्वीकार कर सकेगा लेकिन पूर्वाग्रह से ग्रस्त लोगों से कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.
अब लेखिका ने जो शीर्षक दिया है वो तो अपने आप में एक खोज का विषय है लेकिन उसके विषय में सिर्फ ये ही कहूँगी :
वो सफर था कि मुकाम था
ये तुझे पता न मुझे पता
फिर भी इक फलसफा लिखा गया


डिसक्लेमर :
(ये पोस्ट पूर्णतया कॉपीराइट प्रोटेक्टेड है, ये किसी भी अन्य लेख या बौद्धिक संम्पति की नकल नहीं है।
इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
©वन्दना गुप्ता vandana gupta)
Image may contain: 2 people, people smilingImage may contain: 1 person, text
Image may contain: text
Image may contain: 1 person, textImage may contain: 1 person



मंगलवार, 18 जुलाई 2017

जन्मदिन के बहाने दर्द पिता का





साइटिका के दर्द से बोझिल पिता
नहीं रह पाते खड़े कुछ पल भी
मगर 

जब भी करते हैं बस में सफ़र
नहीं देते दुहाई किसी को
कि
बुजुर्गों के लिए होते हैं विशेष प्रावधान

अपनी जगह
बैठा देते हैं
जवान बेटी को
कि जानते हैं
ज़माने का चलन
आदिम सोच से टपकती बेशर्मी
करती है मजबूर खड़े रहने को
दर्द सहने को

तिलमिलाती है बेटी
पिता के दर्द से
कर ले कितनी अनुनय
मगर मानते नहीं पिता
जानते हैं
आदम जात की असली जात
कैसे स्पर्श के बहाने की जाती है
मनोविकृति पूजित

अपने अपने खोल में सिमटे
दोनों के वजूद
अपनी अपनी सीमा रेखा में कैद
एक दूसरे को दर्द से मुक्त
करने की चाह लिए
आखिर पहुँच ही जाते हैं
गंतव्य पर

दर्द की कोई भाषा नहीं
कोई परिभाषा नहीं
मगर फिर भी
अव्यक्त होकर व्यक्त होना
उसकी नियति ठहरी
मानो हो पिता पुत्री का सम्बन्ध

सफ़र कोई हो
किसी का हो
अंत जाने क्यों तकलीफ पर ही होता है
फिर दर्द पिता का हो या बेटी का

यादों के सैलाब में ठहरे हैं पिता
कि
आज जन्मदिन है आपका
तो क्या हुआ
नहीं हैं आप भौतिक रूप से
स्मृतियों में जिंदा हैं आप

और सुना है
जो स्मृति में जिंदा रहते हैं
वही तो अमरता का द्योतक होते हैं 




डिसक्लेमर
ये पोस्ट पूर्णतया कॉपीराइट प्रोटेक्टेड है, ये किसी भी अन्य लेख या बौद्धिक संम्पति की नकल नहीं है।
इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
©वन्दना गुप्ता vandana gupta

सोमवार, 3 जुलाई 2017

शून्य

कुछ पन्ने हमेशा कोरे ही रह जाते हैं
उन पर कोई इबारत लिखी ही नहीं जाती
एक शून्य उनमे भी समाहित होता है

बिलकुल वैसे ही
जैसे
सामने टीवी चल रहा है
आवाज़ कान पर गिर रही है
मगर पहुँच नहीं रही
जहाँ पहुंचना चाहिए
एक शून्य उपस्थित है वहां भी

सब कुछ है
फिर भी कुछ न होने का अहसास तारी है
चाहे खुशियों के अम्बार हों या सफलता के
अक्सर छोड़ ही जाते हैं जाते जाते एक शून्य

और दिल हो या दिमाग
नहीं कर पाता खुद को मुक्त
शून्य की उपस्थिति से
तो पन्नों सा कोरा रहना स्वभाव है मन का भी

शून्य न कृष्ण पक्ष है न शुक्ल
चिंदियों के बिखरने का कोई मौसम नहीं होता 

डिसक्लेमर
ये पोस्ट पूर्णतया कॉपीराइट प्रोटेक्टेड है, ये किसी भी अन्य लेख या बौद्धिक संम्पति की नकल नहीं है।
इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
©वन्दना गुप्ता vandana gupta