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सोमवार, 7 सितंबर 2015

अच्छे से जानते हैं वो ..........

सूखे खेत चिंघाड़ते ही हैं
निर्विवाद सत्य है ये
फिर क्यों शोर मचा रही हैं
आकाश में चिरैयायें

यहाँ चौपायों पर चला करती हैं सत्ताएं
साम दाम दंड भेद की तरह
फिर क्यों हलाक हुई जा रही हो
क्या होगा आन्दोलन से
जब तक तुममे सच से आँख मिलाने की सामर्थ्य न हो

कथनी और करनी में फर्क है तुम्हारी
तुम सिर्फ शोर के उस तरफ बजाती हो बांसुरी
ताकि घायल भी न हो और बिगुल भी बजे
जबकि सत्य ये है कि
छाती पर वार झेलने वालों को ही मिला करते हैं तमगे

फिर क्यों बेवजह
ये शोर के बिगुल बजा मचा रखा है आसमां में हल्ला

किंचित फ़िक्र नहीं है तुम्हारी किसी को
क्योंकि
वो जानते हैं कैसे किये जाते हैं आन्दोलन निरस्त
अनुभवी हैं
और तुमने तो अभी रखा ही है कदम चारागाह में

मत जोड़ना इस उद्बोधन को किसी खास घटनाक्रम से
क्योंकि
देश का कोई कोना हो
या राजनीति का अघोषित युद्ध हो
या अभिव्यक्ति पर प्रहार हो
या फिर साहित्य का बिछावन हो
एक अराजकता ने लील लिया है यहाँ सभी का विवेक

सिर्फ चिमटे बजाने से नहीं पलटा करती हैं यहाँ सत्ताएं
जरा सा हुश करने भर से
जो उड़ जाया करती हैं
उनका शोर महज भोर का शोर भर ही सिद्ध हुआ करता है
अच्छे से जानते हैं वो ............

ये महज बौद्धिक विलाप के सिवा और कुछ नहीं है !!!

3 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही भावनात्मक. बहुत खूब

Unknown ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने

संजय भास्‍कर ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार, कल 3 दिसंबर 2015 को में शामिल किया गया है।
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमत्रित है ......धन्यवाद !