पेज

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लॉग से कोई भी पोस्ट कहीं न लगाई जाये और न ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

इश्क की कुदालें

मैंने तह करके रख दिए सारे सपने 
और अब धूप दिखा रही हूँ खाली मर्तबान को 

पीने को पानी होना जरूरी तो नहीं 
प्यास के समन्दरों में खेलती हूँ पिट्ठुओं से 

रूह खामोश रहे  या शोर करे 
कतरे सहेजने को नहीं बची मदिरा पैमानों में 

ए री मैं गिरधर की दासी कह 
अब कोई मीरा न रिझाती मोहन को 

इश्क की कुदालें छीलती हैं सीनों को 
तब मुकम्मल हो जाती है ज़िन्दगी मेरी 

आ महबूब मेरे चल जी ले कुछ पल मेरी तरह .......मेरे साथ ...... फिर इस रात की सुबह हो के न हो 

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सार्थक प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-02-2015) को "प्रसव वेदना-सम्भलो पुरुषों अब" {चर्चा - 1884} पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Ankur Jain ने कहा…

इश्क की कुदालें छीलती हैं सीनों को
तब मुकम्मल हो जाती है ज़िन्दगी मेरी

सुंदर रचना।

बेनामी ने कहा…

बहुत ही सुंदर रचना , इश्क की कुदाले सीने में चलती ही नहीं बल्कि दिल में काफ़ी जख्म भी कर देती है ...
मेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है.

Pratibha Verma ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

प्रभात ने कहा…

क्या बात है ........भावपूर्ण रचना!

हिमाँशु अग्रवाल ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना। बधाई। निशब्द हूँ।