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गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

नहीं है कहीं प्रेम का अस्तित्व

नहीं , नहीं है कहीं प्रेम का अस्तित्व , जो है बस है सह -अस्तित्व . आप सोचेंगे रोज प्रेम का लाप अलापने वाली आज अचानक कैसे कह रही है प्रेम का अस्तित्व ही नहीं है  :) .............

सच्चाई तो यही है मगर हम जान ही नहीं पाते उम्र भर और एक अनजानी प्यास के पीछे उम्र तमाम करते फिरते हैं . साथ रहते हैं हम समाज में , परिवार में तो एक दूसरे  की आदत हो जाती है , एक  दूसरे  की जरूरत बन जाते हैं हम और उसे दे बैठते हैं प्यार का नाम , प्रेम का नाम जबकि वो होता है अपनापन जो एक दूसरे की जरूरतों से उपजा होता है . आप जब तक किसी के काम के हैं तभी तक याद रखती है दुनिया , तभी तक आपको पूजती है दुनिया जिस दिन आप असहाय हो गए , जिस दिन आप उनके काम के नहीं रहे तब कहाँ चला जाता है वो प्रेम ? अगर कहा जाता है कि दुनिया में प्यार ही प्यार है और उसी पर ये धरती टिकी है तो आज इतने असहाय , बेबस न होते लोग , रिश्तों के नाम पर एक  दूसरे  को विवशता मे ना ढोते लोग . क्या प्रेम सिर्फ क्षणिक होता है जबकि सुना है प्रेम तो सारी  कायनात में विद्यमान है और वो सब पर बराबर लुटाती है और ये सच भी है क्योंकि प्रकृति किसी से भेदभाव नहीं करती क्या छोटा क्या बड़ा , क्या अपना क्या पराया ,क्या बच्चा क्या बड़ा सब पर अपना बराबर का स्नेह लुटाती है तो उसे तो फिर भी प्रेम कह सकते हैं क्योंकि किसी से कोई भेदभाव नहीं और साथ में निस्वार्थता का भाव मगर हम मनुष्य नाम के प्राणी कहाँ ऐसा कर पाते हैं . 

कोई भी रिश्ता प्रकृति सा अटूट नहीं है हमारे पास , हम अपनों को ही नहीं सह पाते एक उम्र तक आते आते तो कैसे कहते हैं कि प्रेम की तपिश है हमारे अन्दर , जब अपनों की दयनीय दशा देखकर भी हम नहीं पिघलते , उन्हें बुरा भला कहने से नहीं चूकते यहाँ तक कि अपने मुनाफे के लिए उन्हें धोखा तक दे देते हैं तो कैसे कहते हैं प्रेम का अस्तित्व है इस जहाँ में ? आज जब बच्चे हों या बडे सभी एक दूसरे को भला बुरा यहाँ तक कि अपमान भी छोटी चीज़ है कत्ल तक कर देते हैं तो कैसे कहें प्रेम का अस्तित्व है , प्रेम तो एक विलक्षण स्थिति का नाम है जहाँ तक कोई नहीं पहुँचता सिर्फ़ साथ रहना और एक दूसरे की जरूरत में काम आना प्रेम नहीं सह अस्तित्व है वरना तो आज बीमार यदि कोई ऐसा पड जाए जिसकी उम्र भर सेवा करनी पडे तो उसे भी घर निकाला दे दिया जाता है तो कहाँ जाता है वो प्रेम यदि था तो ? कैसे भूल जाता है मानव रिश्ते की ऊष्मा को ? 

मुझे तो कहीं नहीं दिखता प्रेम का अस्तित्व. हर रिश्ता झूठा दिखता है या वक्त की नोक पर मजबूरी के अहाते में खड़ा बरसात रुकने की इंतज़ार में दिखता है . जो है बस सह अस्तित्व ही है जहाँ एक  दूसरे की जरूरत भर हम एक दूजे का साथ निभा कर अपने कर्त्तव्य को प्रेम का नाम देकर भावनाओं से खेलते भर हैं मगर वास्तव में प्रेम के वृहद् अर्थ को तो कभी समझ ही नहीं पाए गर समझा होता तो आज अपनों की , बुजुर्गों की इतनी दयनीय दशा न होती .........वो अकेलेपन का शिकार न होते , वो ज़माने पर बोझ न होते . 

वैसे भी देखा जाए कोई आज मरे तो कल नया सवेरा दिखता है , दो दिन याद किया और फिर भूल गए यही है हमारी फितरत ............क्या वास्तव में प्रेम हो तो क्या कभी हम भूल सकते हैं या उसके बिना जी सकते हैं ..........प्रेम , प्रेम कहना आसान होता है मगर निभाना बहुत मुश्किल ............वास्तव में तो हमने सिर्फ सह अस्तित्व के साथ जीना सीखा है और कुछ पल के साथियों को प्रेम नाम की माला दी है जपने को ताकि जीवन भ्रम में ही सही , चलता रहे .............


वैसे प्रेम की धारणा बहुत पुरानी है । युग ढोते रहे हैं और ढोते रहेंगे मगर जान कहाँ पाते हैं प्रेम के सूक्ष्म अणुओं और परमाणुओं को जहाँ अपेक्षा का सिद्धांत लागू ही नहीं होता और देयता और त्याग के सिद्धांत पर ही ज़िन्दगी बसर होती है और वो प्रेम आज के दौर में कहाँ संभव है ? 

मानविक प्रेम ही संभव नहीं हो पाता तो आत्मिक या दैविक प्रेम तो सिर्फ़ सोच और ख्यालों की बस ताबीर भर हैं और इसी छदम खेल में घिरे हम गुजार जाते हैं ज़िन्दगी , जी जाते हैं ज़िन्दगी और खो जाते हैं समय के गर्त में किसी सागर की बूँद सम मगर कभी नहीं जान पाते फ़र्क निस्वार्थ प्रेम और सह - अस्तित्व में । 

देखा जाये तो मूल धारणा तो यही है जीवन की इस पृथ्वी पर "नहीं है कहीं प्रेम का अस्तित्व , जो है बस है सह -अस्तित्व" बस हमने उसे तरह तरह के नाम और उपनाम देकर जीने का माध्यम भर बनाया है वरना क्षणभंगुरता ही शाश्वत है जब तब प्रेम अक्षुण्ण कैसे ? 

कपोल कल्पित कहानी के पात्रों को माध्यम बनाकर जीवन गुजारने का साधन मात्र है प्रेम की अवधारणा वरना तो जीवन चलता ही है सिर्फ़ सह - अस्तित्व की अवधारणा पर क्योंकि हम समाजिक प्राणी हैं और हमें जीने को एक साथ की जरूरत होती है, अपनेपन के अहसास की जरूरत होती है और उस जरूरत को हम प्रेम या प्यार का नाम दे देते हैं और एक जीवन जी लेते हैं मगर अंतिम पडाव पर जब ठगे से खडे होते हैं तब करते हैं विश्लेषण तब पाते हैं निष्कर्ष में यही कि जो था सिर्फ़ सह - अस्तित्व भर था , प्रेम तो किसी विषपात्र की तरह दुबका सहमा सिमटा सा वक्त के गर्त में कब का ज़मींदोज़ हो चुका था , गर वो प्रेम था तो !!!

10 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

वन्दना जी, आपने जो कुछ भी कहा है वह मोह के लिए ठीक है, जिसे हम प्रेम कहते हैं वह वास्तव में प्रेम नहीं मोह होता है, प्रेम तो बहुत दुर्लभ है...जिसने स्वयं को नहीं जाना उसके अंतर में प्रेम नहीं उपज सकता.

Kailash Sharma ने कहा…

आज निस्वार्थ प्रेम की तलाश करना व्यर्थ है...सभी रिश्ते, सम्बन्ध स्वार्थ पर आधारित हैं...

dr manoj singh ने कहा…

kore kaghaz ke pas apke prasan ka uttar.apne os ki bundon se reshmi hawaon se kuchh jyada hi babista bana rakha hai?thora sabdon se duriyan badha len.

Tamasha-E-Zindagi ने कहा…

आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी यह विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज के ब्लॉग बुलेटिन - रे मुसाफ़िर चलता ही जा पर स्थान दिया है | बहुत बहुत बधाई |

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
साझा करने के लिए आभार।

रश्मि शर्मा ने कहा…

Prem kya hai aur iska sahi roop kya hai...wastav me iski vuakhya karna kathin hai....

Parmeshwari Choudhary ने कहा…

प्रेम के अस्तित्व में विश्वास ही जीवन में विश्वास है। निराशा का कारण प्रेम नहीं उसमें प्रतिफल की अपेक्षा है। प्रेम व्यापार नहीं। उसमे लेन -देन का भाव ठीक नहीं। किसी को पाने की कामना भी प्रेम नहीं।प्रेम तो निर्मल भावों की ऐसी धारा है जिसमे किसी के अस्तित्व के अहसास मात्र से दुनिया सुन्दर लगने लगती है। मुझे तुसे प्रेम है इसलिए तुम मेरे लिए यह करो.... यह प्रेम नहीं प्रेम का व्यापर है।
क्षमा-याचना सहित

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

प्रेम तो अपने आप में ही एक खोज है ...

वाणी गीत ने कहा…

प्रेम की आराधना के बाद इसके अस्तित्व का नकार .......
अपनापन प्रेम का ही तो रूप है , प्रेम सहअस्तित्व में , आदत में है !
इसके अतिरिक्त तो कवि की कल्पना में ही रहेगा !

Unknown ने कहा…

एक गूढ विषय पर कलम चलना इतना आसान नही होता आपने जो कुछ लिखा वो निःसन्देह सह अस्तित्व है प्रेम की परिभाषा व्यापक भी है और सूक्ष्म भी कभी कभी एक पल मे भी अर्थ दे जाता है प्रेम और कभी प्रेम गीत गाते वर्षों गुजर जाते है
मगर अर्थ समझ मे नहीं आता। कवि की कल्पना मे ही ठीक है चाँद तारे तोड़ने की ये कला....