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रविवार, 4 दिसंबर 2011

यूँ भी हर किसी के ख्वाबगाह युगों तक सुलगते नहीं रहते


एक ख्वाबगाह से हकीकत तक का सफ़र
फिर किसी ख्वाबगाह के 
मोड पर आकर रुक गया 
ज्यों लम्हा गिरा किसी तबस्सुम पर 
और लफ़्ज़ कोई लरज़ गया 
ये आने जाने के सफ़र मे 
युग देखो बदल गया
क्या आज भी तुम्हारे सिरहाने पर 
धूप दस्तक देती है
क्या आज भी ओस की पहली बूँद 
तुम्हारे रुखसार पर गिरती है
क्या आज भी दिनकर 
तुम्हारे दीदार के बाद ही सफ़र शुरु करता है
देखो ना …………
मै तो कैद हूँ तुम्हारी ख्वाबगाह मे
बताना तो तुम्हे ही पडेगा ………
बदलते मौसम के मिज़ाज़ को
अरे रे रे ..........ये क्या 
तुम तो अभी तक मोड़ मुड़े ही नहीं 
तो क्या युग परिवर्तन के साथ
तुम्हारे असीम निस्सीम प्रेम की 
धारा ने भी प्रवाह बदला है 
या प्रेम का बुलबुला उसी मोड़ पर 
लम्हे के हाथों कैद हुआ खड़ा है 
देखा कैद करने का हश्र ..........
ना सिर्फ कैदी बल्कि करने वाला भी 
स्वयं कैद हो जाता है निगेहबानी करते करते 
बताओ अब ............
क्या कभी जी पाए एक भी लम्हा मेरे बिन 
जब तुम्हारी ख्वाबगाह का आतिथ्य 
मैंने स्वीकार कर ही लिया था
तो फिर क्या जरूरत थी तुम्हें रुकने की
मोड़ से ना मुड़ने की
क्या जरूरत थी लम्हों को कैद करने की
यहाँ तो देखो वक्त ने सीढियां चढ़ी ही नहीं
और तुमने भी वक्त के केशों को उलझा दिया
ना खुद की कोई सुबह हुई
ना मेरी कोई शाम हुई
ये ख्वाबगाह  के सफ़र से 
ख्वाबगाह के मोड़ तक ही
उम्र तमाम हुई .............
भूले बिसरे लम्हे आज भी
आसमाँ के आँचल में बिखरे पड़े हैं
हिम्मत हो तो कभी
कोई तारा तोड़ कर देखना ..............
शायद किसी रूह को पनाह मिल जाए 
और उसकी मोहब्बत 
लम्हों की कैद से आज़ाद हो जाये ...............
यूँ भी हर किसी के ख्वाबगाह युगों तक सुलगते नहीं रहते 

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