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रविवार, 28 नवंबर 2010

टिशु पेपर हूँ मैं………………

लोग आते हैं
अपनी कहते हैं
चले जाते हैं
हम सुनते हैं 

ध्यान से गुनते हैं
दिल से लगा लेते हैं
जब तक संभलते हैं
वो किसी और
मुकाम पर
चले जाते हैं
और हम वहीं
उसी मोड़ पर
खाली हाथ
खड़े रह जाते हैं

कभी कभी लगता है
टिशु  पेपर हूँ  मैं

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

शायद जीना इसी का नाम है

साइकिल पर 
रखकर सामान
सुबह सुबह
निकल पड़ते हैं 
किस्मत से लड़ने 
गली गली 
आवाज़ लगाते 
"फोल्डिंग बनवा लो "
और फिर 
कभी कभार ही 
कोई मेहरबान होता है
बुलाता है 
मोल भाव करता है
और बड़ा 
अहसान- सा करके
काम देता है  
उस पर यदि कोई 
बुजुर्ग हो बनाने वाला 
तो वो उसे अपनी 
किस्मत मान लेता है
और सौदा कर लेता है

जिस उम्र में हड्डियाँ 
ठहराव चाहती हैं
उस उम्र में परिवार का 
बोझ कंधे पर उठाये
जब वो निकलता होगा 
ना जाने कितनी आशाओं 
की लड़ियाँ सहेजता होगा
फोल्डिंग बनाते बनाते 
हर पट्टी में जैसे 
सारे दिन की दिनचर्या 
बुन लेता होगा

सड़क पर बैठकर 
कड़ी धूप में 
पसीना बहाते हुए
उसे सिर्फ मिलने वाले 
पैसों से सपने खरीदने 
की चाह होती है
एक वक्त की
रोटी के जुगाड़ 
की आस होती है
कांपते हाथों से 
दिन भर में
बा-मुश्किल 
दो ही फोल्डिंग 
बना पाता है
उन्ही में 
जीने के सपने
सजा लेता है 
और ज़िन्दगी के
संघर्ष पर
विजय पा लेता है
और शाम ढलते ही
एक नयी सुबह की
आस में सपनो का 
तकिया लगाकर 
सो जाता है
शायद 
जीना इसी का नाम है 

सोमवार, 22 नवंबर 2010

खाली पहर

आज एक
खाली पहर
बीत रहा है
कोई सांस नहीं
कोई आस नहीं
कोई चाह नहीं
अब इसमें
हर स्पंदन मौन
वक्त की मूक
अभिव्यक्ति का
गवाह बनता
ये पहर
कुछ छीने
भी जा रहा है
जैसे लूट कर
ले गया हो कोई
किसी की अस्मत
और जुबाँ भी
मौन हो गयी हो
बचा हो तो
सिर्फ उस पहर का
रीतापन
अपने बेसबब
हाल पर
कुंठाओं के
बीज बोता हुआ
 अब कुछ नही बचा……………
शायद खालीपन का अहसास भी नही
जैसे बुहारा गया हो आंगन
 और निशाँ सब मिट चुके हों

बुधवार, 17 नवंबर 2010

मै तो

मै तो हर समय
खूबसूरत समय
मे जीती हूँ
ख्वाब मे नही
जीती हूँ
हकीकत के
धरातल पर
समय से
लड्ती हूँ

और समय को
अपने पल्लू मे
बाँध लेती हूँ

सोमवार, 15 नवंबर 2010

अतिक्रमण

ना जाने क्यूँ 
अतिक्रमण 
करते हैं हम
कभी ज़मीन का

कभी अधिकारों का
कभी भावनाओं का
तो कभी मर्यादाओं का
शायद हमारे
लहू में ही
कोई जीन

अतिक्रमणता
का काबिज़
हो गया है
जो अपनी
सीमाओं में
रहने  को
अपना अपमान
समझता है
सीमाओं का
उल्लंघन
उसकी
प्राथमिकता
होती है
फिर उससे चाहे
किसी का भी
जीवन धराशायी
क्यूँ ना हो जाये
अतिक्रमण करने
वालों का कोई
ईमान नहीं होता
उन्हें परवाह
नहीं होती
कितने दिल टूटे
किसका आशियाँ
उजड़ा
किसका जहाँ
बर्बाद हुआ
किसी के भी
अरमानों का 

जनाजा ही
क्यूँ ना निकल जाए
कोई सरे बाज़ार
बदनाम ही
क्यूँ ना हो जाए
मगर अतिक्रमण
करना जरूरी है
और शायद
भावनाओं का तो
बेहद जरूरी
तभी हम
स्वयं को
शरीफ और

समाज की
सशक्त कड़ी
साबित कर पाएं
और अतिक्रमणता

को मुकाम दे पायें

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

दुनिया का दस्तूर

दस्तूर तो दुनिया 
सही निभाती है 
कमी हम में ही है
जो ना समझ पाते हैं 
सब अपने आप के साथी हैं 
पल भर के मुसाफिर 
मिलते हैं फिर
अपनी राह को 
बढ़ जाते हैं
कौन किसी का 
मीत यहाँ 
कौन किसी का 
साथी रे 
कुछ पल के लगे
डेरे हैं 
फिर बंजारों की टोली
चली जाती है
यहाँ ना कोई 
किसी का दोस्त है
सब राह भर के
साथी हैं
दुनिया जानती है
इस दस्तूर को
तू भी सीख जायेगा
रे मनवा 
यहाँ रिश्ते उधार 
के जुड़ते हैं
जीते जी ना 
चुकते हैं
मिलने बिछड़ने का
सिलसिला अनवरत 
चलता रहता है
मगर कोई ना 
किसी का होता है
इस दस्तूर की
घुट्टी बनाकर
पी जा प्यारे 
दिल को पत्थर 
बनाकर जीना 
सीख जा प्यारे
दुनिया का दस्तूर
निभाना आ जायेगा 
शायद तू भी तभी 
"इंसान" कहा जाएगा

रविवार, 7 नवंबर 2010

फिर क्यूँ ढूँढूँ अवलम्बन?

मै
अपने आप से
बेहद खुश
फिर किसलिये
ढूँढूँ अवलम्बन

मुझे मेरा "मै"
भटकाता नही
उसके सिवा कुछ
रास आता नही
अब बंधन 
स्वीकार नही
अब ना कोई

दीवार रही
मै अपने "मै" मे

जी लेती हूँ
शायद इसीलिये 

हँस लेती हूँ
जब जान लिया
है  खुद को
फिर क्यूँ
ढूँढूँ अवलम्बन

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

मधुरिम पल

कुसुम कुसुम से 
कुसुमित सुमन से
तेरे मेरे मधुरिम पल से
अधरों की भाषा बोल रहे हैं
दिलों के बंधन खोल रहे हैं
लम्हों को अब हम जोड़ रहे हैं
भावों को अब हम तोल रहे हैं
नयन बाण से घायल होकर
दिलों की भाषा बोल रहे हैं
हृदयाकाश पर छा रहे हैं
मेघों से घुमड़ घुमड़ कर
तन मन को भिगो रहे हैं
पल पल सुमन से महक रहे हैं
मधुरम मधुरम ,कुसुमित कुसुमित
दिवास्वप्न से चहक रहे हैं
तेरे मेरे अगणित पल
तेरे मेरे अगणित पल


दोस्तो,
ये रचना आप लोगों ने नहीं पढ़ी होगी और जिन्होंने पढ़ी है उनमे से अब सिर्फ २-३ ही होंगे बाकी सब ब्लॉग जगत से जा चुके हैं इसलिए अब दोबारा लगाई है  ..........उम्मीद है पसंद आएगी

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

कभी हवा से भी बतिया कर देखिये

कभी हवा से भी बतिया कर देखिये
न जाने कितने पैगाम दे जायेगी
कुछ अनसुना सुना जायेगी
कुछ अनकहा कह जायेगी
तुम्हारे पैयाम ले जायेंगी
दर पर इक दस्तक दे जायेंगी
कभी बतियाकर तो देखिये
कभी हाथ लगाकर तो देखिये
ना भीग जाये तो कहना
हवाओं मे भी नम स्पर्श होता है
नमी हाथो की कहानी कह जायेगी

फिजाओं की हर सदा दे जायेगी
कैसे बहते हैं चश्मे - नम
हवाओ के साथ तुम भी जान लोगे
हवाओ को पहचान लोगे
उनसे अपना दामन बाँध लोगे

 बस एक बार हवाओं से
बतिया कर तो देखिये