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बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

बचपन के वो कोमल कोमल मासूम हाथ
जिनमें खिलोने और गुडिया होनी चाहिए थी
पढने को किताबें होनी चाहिए थी
दो वक्त की रोटी के लिए
घर में चूल्हा जलाने के लिए
छोटे छोटे हाथों से
लकड़ी का बुरादा
बोरियों में ऐसे भर रहे थे
जैसे कोई सेठ
तिजोरी में
सोना समेट रहा हो
उनके लिए तो शायद
वो बुरादा ही
सोने से बढ़कर था
आंखों में शाम की
रोटी के पलते सपने
ऐसे दिख रहे थे
जैसे किसी प्रेमी को
उसका प्यारा मिल गया हो
बचपन में ही
बड़े होते ये बच्चे
पेट के लिए जुगाड़
करना सीख जाते हैं
और इंसान बड़ा होकर भी
कभी इन्हें न जान पाता है
इन पर अपने सपनो का
महल बना लेता है
अपनी आशाओं को
पंख लगा देता है
अपने दामन को
खुशियों के तोहफों से
तो भर लेता है
मगर इतना नही सोचता कि
जितनी शिद्दत से
हमने ऑस्कर को चाहा है
गर इतनी शिद्दत से
इन मासूमों को चाहा होता
तो ..................................
इनका भविष्य बदल गया होता
मेरे देश को तो तभी
ऑस्कर मिल गया होता

6 टिप्‍पणियां:

Vinay ने कहा…

वंदना जी बहुत सराहनीय कविता लिखी है, यह हक़ की बात है!

---
चाँद, बादल और शाम

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत सही कहा आपने ..सच को बताती एक सशक्त कविता

मगर इतना नही सोचता कि
जितनी शिद्दत से
हमने ऑस्कर को चाहा है
गर इतनी शिद्दत से
इन मासूमों को चाहा होता
तो ..................................
इनका भविष्य बदल गया होता
मेरे देश को तो तभी
ऑस्कर मिल गया होता

mehek ने कहा…

vandana ji bahut gehri baat keh gayi aap,sach agar hum har ek jan ek bhi aise bachheko chahe aur kuch kare to uska bachpan in galiyon nahikhota.aur wahi sahi oscar hota,sundar rachana satya kehti badhai.

सुशील छौक्कर ने कहा…

आज फिर से मासूम से शब्दों से एक सच कह दिया। बहुत बेहतरीन।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

जितनी शिद्दत से
हमने ऑस्कर को चाहा है
गर इतनी शिद्दत से
इन मासूमों को चाहा होता
तो ..................................
इनका भविष्य बदल गया होता
मेरे देश को तो तभी
ऑस्कर मिल गया होता"

आपकी रचना की इन पंक्तियों की जितनी प्रशंशा की जाये कम है....बहुत खूब लिखा है आपने...आस्कर की खुशियाँ मनाने वालों के मुहं पर तमाचा है...

नीरज

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

achchi rachna he..
सोने से बढ़कर था
आंखों में शाम की
रोटी के पलते सपने
.....wah in panktiyo ne mujhe sabse adhik prabhavit kiya..